Aacharya Dharsen
आचार्य धरसेन
जीवन-परिचय : मुनिपुंगव (मुनियों में श्रेष्ठ) आचार्य धरसेन सौराष्ट्र देश के गिरिनगर की चन्द्रगुफा के निवासी थे। आप सिद्धान्त ग्रन्थों के विशेष ज्ञाता थे। उन्हें आगम सम्बन्धी ज्ञान आचार्य परम्परा से प्राप्त हुआ था। आचार्य धरसेन अपने समय के धुरन्धर विद्वान थे। उन्होंने प्रवचनवात्सल्य से प्रेरित होकर श्रुत-ज्ञान के संरक्षण के भाव से दक्षिणापथ के आचार्यों के पास एक पत्र भेजा। इस पत्र में उन्होंने यह इच्छा व्यक्त की कि कोई योग्य शिष्य उनके पास आकर पट्खण्डागम का अध्ययन करें। दक्षिण देश के आचार्यों ने आन्ध्रदेश से दो आचार्यों को आचार्य धरसेन के पास भेजा। इन दोनों शिष्यों ने आचार्य धरसेन के पास पहुँचकर उनकी तीन प्रदक्षिणाएँ दी और उनके चरणों में सविनय नमस्कार किया। आचार्य धरसेन ने सर्वप्रथम उन दोनों शिष्यों की परीक्षा ली और परीक्षा में उत्तीर्ण होने के पश्चात् उन्हें सिद्धान्त की शिक्षा दी। आचार्य धरसेन ने अपनी मृत्यु निकट जानकर दोनों शिष्यों को शिक्षा पूर्ण हो जाने पर शीघ्र ही अपने पास से विदा किया और कुछ समय पश्चात् समाधिपूर्वक शरीर का परित्याग कर दिया।
आचार्य धरसेन कर्मशास्त्र और सिद्धान्तशास्त्र के विशेष ज्ञाता थे आप सफल शिक्षक और श्रेष्ठ आचार्य थे। आप अनेक शास्त्रों के ज्ञाता होने के कारण महनीय यश के धारी विद्वान थे और मन्त्र-तन्त्र आदि शास्त्रों के ज्ञाता थे आप लेखनकला, प्रवचनकला और शिक्षणकला में भी निपुण थे। प्रश्नोत्तर शैली में शंका-समाधानपूर्वक शिक्षा देने में कुशल थे। आप महान एवं कठिन विषय को संक्षेप में प्रस्तुत करने में दक्ष थे। साथ ही पाठन, चिन्तन एवं शिष्य उद्बोधन की कला में भी पारंगत थे।
प्राकृत पट्टावली और इन्द्रनन्दि के ग्रन्थ श्रुतावतार के आधार पर आचार्य धरसेन का समय वीरनिर्वाण संवत् 600 माना जाता है। अनेक प्रमाणों के आधार पर आचार्य धरसेन का समय ईसवी सन् की प्रथम शताब्दी माना जाता है। रचना-परिचय: आचार्य धरसेन द्वारा रचित ग्रन्थ है--योनिपाहुड। योनिपाहुडः आचार्य धरसेन की एकमात्र कृति 'योनिप्राभृत (जोणीपाहुड) है, जिसमें मन्त्र-तन्त्रादि शक्तियों का वर्णन है। यह ग्रन्थ रिसर्च इन्स्टीट्यूट पूना के शास्त्र भण्डार में मौजूद है। अभी-अभी भारतीय ज्ञानपीठ से इसका प्रकाशन हो चुका है।